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Sunday, April 21, 2013

मैंने कैसी बुजदिली कर ली


हमने तो बिना बुत के ही आशिकी  ली 
कि बुत की जुस्तजू में बसर जिन्दगी कर ली 
हर अक्स को दर्द की सूरत देने की कोशिश की  
कि बादलों में उभरे तस्वीरों  से दोस्ती कर ली 
हयात के रुखसार पर उभरे जो भी सारे रंग 
बस उन्ही से हमने  दर्द की वन्दगी कर ली 
उसने तो बस एक कशिश ही दी थी मुझे 
वक्त ने ये न जाने कैसी मौसिकी कर ली 
यूँ  ही तो था की मेरे आसुओं की सूरत न थी 
कि दिल लगा कर मैंने कैसी बुजदिली कर ली 

ã डॉ आलोक त्रिपाठी 2013

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