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Friday, August 14, 2015

नागफनियों को तपती धुप में


मैंने अपने हाथों की लकीरों से बनाई है शबीह तेरी 
माझी में ऐसा खुबसूरत तस्स्ब्बुर नजर आये कहाँ से?

मुस्कुराते देखा है हमने नागफनियों को तपती धुप में 
पर गुलाबों के चमन में हम ये चलन लाये कहाँ से ?

माना की कोई बर्क सा अल्फाज़ नही है हिकायत में 
पर बिना तेरे अपनी तस्ब्बुर-ए-हयात सजाए कहा से ?

पा भी लें तुझे गर तेरी ही शर्तों पर ये तो कोई बात नही
खरीद के सजाई तस्वीर हम वो नूर लायें कहाँ से ?

कि मेरी उम्र से भी लम्बी है 'मेरी' व् 'उसकी' रंजिश 
मुसलसल सिलसिले के बाद फतह का जुनून लाये कहाँ से?

डॉ अलोक त्रिपाठी (१९९८) 

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