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Friday, September 11, 2015

मुझे जीने ही नही आता


मुझे जीने ही नही आता ये कह 
मुझे हर बार जगाती रही माँ .
आज के बाद फिर कभी नही भूलूंगा
ये कह के खुद को सुलता रहा माँ 

आज की रात आँखों की आखिरी बरसात है, 
रातों के पंछी ये गीत गुनगुनाते गये 
सुबह की लालिमा कही आँखों को सुर्ख न कर 
ये कहते कहते पलक मेरे बुझते गये 

हर रात बुने चंद अल्फाज़ हमने 
अगली तारीख में वो ही मेरी तक़दीर होगये 
अगले पल ही कौन सा तूफा आएगा 
ये ही सवाल मेरे जेहन में एक तूफान हो गये 

डॉ अलोक त्रिपाठी (१९९०)
(यह मैंने बहुत छोटे पर ही लिखी थी जाने आज क्यूँ याद आगयी )

Friday, August 21, 2015

कशिश जाने कैसी रोके है इसे बिखर जाने से

Alok Tripathi's photo.

तरन्नुम बिखरी है फ़िज़ाओं में फिर भी
फिसल रहे है जाने क्यों अल्फ़ाज़ होठों से


निगाहों को अश्कों से मोहब्बत सी होगई
नही फिसल रहे जाने क्यों अश्क आँखों से


चेहरा आईना न हुआ फ़िज़ाओं की रौनक का
कशिश जाने कैसी रोके है इसे बिखर जाने से


स्याह समुन्दर के किनारों पर उभरा अक्स कैसा
कुछ तो रोके है मेरी चीख को निकल जाने से


कुछ यूँ अंधरे है अपनी ही इबारत नही दिख रही
जाने कौन रोक लेता है कहीं भी भाग जाने से


हर बार उठ के खड़ा होता ही हूँ मेरा नाम आएगा
जाने मेरी अर्जियों को कौन उड़ा दिया बहाने से


डॉ अलोक त्रिपाठी (C) 2015

Friday, August 14, 2015

नागफनियों को तपती धुप में


मैंने अपने हाथों की लकीरों से बनाई है शबीह तेरी 
माझी में ऐसा खुबसूरत तस्स्ब्बुर नजर आये कहाँ से?

मुस्कुराते देखा है हमने नागफनियों को तपती धुप में 
पर गुलाबों के चमन में हम ये चलन लाये कहाँ से ?

माना की कोई बर्क सा अल्फाज़ नही है हिकायत में 
पर बिना तेरे अपनी तस्ब्बुर-ए-हयात सजाए कहा से ?

पा भी लें तुझे गर तेरी ही शर्तों पर ये तो कोई बात नही
खरीद के सजाई तस्वीर हम वो नूर लायें कहाँ से ?

कि मेरी उम्र से भी लम्बी है 'मेरी' व् 'उसकी' रंजिश 
मुसलसल सिलसिले के बाद फतह का जुनून लाये कहाँ से?

डॉ अलोक त्रिपाठी (१९९८) 

Friday, July 10, 2015

बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का


बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का 
गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ है सजर ये मेरे अपनों का 

सिले होठों के भीतर तूफानों की सरसराहट से टूटते सब्र 
लगता है जहर बो दिया हो किसीने अपने अरमानों का 

आवाजों को निगलते मेरी बातों के अंजाम का खौफ 
खुली हवाओं में घुला हो जहर तहजीब व् सलीकों का 

जीने का हुनर सीखते २ रूठ गयी है जिन्दगी मुझसे 
शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ मै घुटन जंजीरों का 

आपनो से इतनी नफरत कि बस भाग जाऊकही 
शिकायत किसी से नही बोझ हैं चाहत के अपनों का 

...........डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१५) 

Sunday, June 21, 2015

प्रेम या आशक्ति

प्रेम शब्द का सन्धि विग्रह यूँ होता है
प्रेम=परा +ई +म। अर्थात जो शक्ति हमे उर्ध्व की ओर ले जाये वो 'प्रेम' है। आजकल की प्रचलित भाषा में हम जिसे प्रेम कहते है वो वास्तव में आशक्ति का ही एक स्वरूप है. जिसके तीन भेद होते है. 
वासना - क्षणिक एवं तीव्र आवेगित होती है
कामना - सामान गुणों के कारण उत्त्पन्न आशक्ति
एवं श्रद्धा-स्वयं से श्रेष्ठ होने के कारण उत्त्पन्न आशक्ति
सनातन धर्म में होने वाले विवाह में इन तीनो आशक्ति से होते हुए अन्तः मोक्ष को प्राप्त हुआ जा सकता है। विवाह के तुरंत बाद ही भोग की इच्क्षा से वासना उत्पन्न होती है जो साथ २ रहते २ कामना में बदलती जाती है। और अन्तः कामना इतना ज्यादे होजाती है कि श्रद्धा का स्वरुप ले लेती है

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आँसू: अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए

आँसू: अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए: एक अरसे से खुद को समझाता आ रहा हूँ  धीर धरो एक बार शकु से बैठ कर बात करेंगे गुजरे वक़्त का सलीके से हिसाब करेंगे  सबका हक हिस्...

अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए



एक अरसे से खुद को समझाता आ रहा हूँ 
धीर धरो एक बार शकु से बैठ कर बात करेंगे

गुजरे वक़्त का सलीके से हिसाब करेंगे 
सबका हक हिस्सा उसके नाम करेंगे

साल दर साल गुजर गए, एहसास बदल गए 
अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए

पर आज तक वो वक़्त नही आया 
अब तक खुद के इतने करीब नही आया।

--------------- आलोक त्रिपाठी

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