तरन्नुम बिखरी है फ़िज़ाओं में फिर भी
फिसल रहे है जाने क्यों अल्फ़ाज़ होठों से
निगाहों को अश्कों से मोहब्बत सी होगई
नही फिसल रहे जाने क्यों अश्क आँखों से
चेहरा आईना न हुआ फ़िज़ाओं की रौनक का
कशिश जाने कैसी रोके है इसे बिखर जाने से
स्याह समुन्दर के किनारों पर उभरा अक्स कैसा
कुछ तो रोके है मेरी चीख को निकल जाने से
कुछ यूँ अंधरे है अपनी ही इबारत नही दिख रही
जाने कौन रोक लेता है कहीं भी भाग जाने से
हर बार उठ के खड़ा होता ही हूँ मेरा नाम आएगा
जाने मेरी अर्जियों को कौन उड़ा दिया बहाने से
डॉ अलोक त्रिपाठी (C) 2015