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Friday, August 16, 2013

तेरी हर अदा पर ग़ज़ल लिखूं
तेरी हर खता पर ग़ज़ल लिखूं
तू प्यार की एक हसीन किताब है
किताब पर आशार क्या लिखूं

तेरी पलकों में जीवन के सपने है
इन सपनों पर ह्या के परदे है
उनके पीछे मेरे जीने की राहे है
पलको के उठ्ने का अहसास क्या लिखूं

इस चश्मे नूर की इबादत हो
तेरे चाहतो के रौशन है ये साया मेरा
तुम ही तो उसके ख्वाइशों की इबारत हो
तुम्हारे एतबार का अहसास क्या लिखूं 

कायनात का एक हसीन ख्याल हो
तुम तो उसके होने की गवाह हो
उसकी मुसब्बरी को अल्फाज़ क्या दूं
ये तो कुफ्र है उसके ख्वाबों को ख्याल क्या दूं 

(C) डॉ अलोक त्रिपाठी २००४ 

Monday, August 5, 2013

मै जीता हूँ कि उसे फिर से पलकों में उतार लूं

एक सुप्त सागर की गोद से एक मोती निकला 
ये समझा ये माना अभी तक किसी ने नही देखा 
अपने ही रक्त से रक्ताभ लालिमा दी उसे 
जब आच्छा नही लगा तो आसुओं से धो दिया 
मेरा शक जाने कब विश्वास में बदल गया 
और मेरे तर्कों की कोई भूमिका नही मिली 
पहले तो ये जाना की को चमकता नूर मोती है 
जब वो सच से मुखातिब हुआ तो नजर से ढल गया 
गम इसका नही कि वो मेरी नजर से बुझ गया 
गम अपनी कसक की कीमत या फितरत का भी नही 
गम बस ये की आँख का वो मोती आखों से ढल गया 
फिर जाने कहाँ गया और बस चला ही गया 
गम ये रहा कि  आँख का नूर पैरों में न गिरे 
ये जहाँ उसे कभी झुकी नजरों से न देखे 
बस इसी स्वप्न की तहरीर में लिखता हूँ 
मै जीता हूँ कि  उसे फिर से पलकों में उतार लूं 

-© डॉ आलोक त्रिपाठी १९९८ 

Sunday, April 21, 2013

मैंने कैसी बुजदिली कर ली


हमने तो बिना बुत के ही आशिकी  ली 
कि बुत की जुस्तजू में बसर जिन्दगी कर ली 
हर अक्स को दर्द की सूरत देने की कोशिश की  
कि बादलों में उभरे तस्वीरों  से दोस्ती कर ली 
हयात के रुखसार पर उभरे जो भी सारे रंग 
बस उन्ही से हमने  दर्द की वन्दगी कर ली 
उसने तो बस एक कशिश ही दी थी मुझे 
वक्त ने ये न जाने कैसी मौसिकी कर ली 
यूँ  ही तो था की मेरे आसुओं की सूरत न थी 
कि दिल लगा कर मैंने कैसी बुजदिली कर ली 

ã डॉ आलोक त्रिपाठी 2013

Thursday, March 7, 2013

अदब से




मुझे गिला 'दर्द' के होने से नही, बस उसके छलक जाने से है
ये जहाँ क्या जान पाता मेरे हर पल की मुस्कराहट का सबब

उम्र के इस मोड पे जरा जरा सा होश आने लगा है मुझको,
किताबों  की इबारत में समझने लगा हूँ जमाने का अदब

अभी भी सीख लूं ज़माने के चलन, कि कई इम्तिहान बाकी है
जाने क्यूँ दिल से खौफों का सिलसिला  जाता नही है अब

शब् गुजरती है खुद से गुप्तगू में, कि सहर दे देता बिखरे ख्वाब
ये चेहरा जाने कैसे कर देता है चुगली कि समझ जाते है सब

कभी भी नही लगा कि चाहिए मुझे ये सारा जहाँ जीने के लिए
फिर ये साजिस किसकी है जो ला दिया मुझे इस मोड पर अब

जो छोड़ आये थे गैर जरुरी मान के, एक अरसे पहले कहीं
क्यूँ आरजुवों में शामिल होने लगा है और बन गया है वो रब


© डॉ आलोक त्रिपाठी 2013