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Thursday, October 15, 2015

उन तमाम खवाइसो को क्या नाम दू?



कभी सोचता उन तमाम खवाइसो को क्या नाम दू?
जो जली तो जी भर के पर कभी दिखी ही नही

दिल में ही सुलगती रही जी भरके भठ्ठी की तरह
पर कभी भी किन्ही अल्फाजो में दर्ज नही हुई

यक़ीनन ‘अल्फाजो से बेरुखी’ शहादत का चेहरा रहा
कभी वक्त, कभी हालत के जंजीरों को तोड़ नही पाई

दफन होगयी माझी का एक खुबसूरत ख्याल बनकर
वक्त के किसी कोनेमें, हाल के साथ, सिसकती रही

सिसकियाँ जो आंसूं नही बन पायी तैरती रही पलको पर
नाव तैर रही हो समन्दरमें कोई जिसकी मंजिल ही नही

डॉ आलोक त्रिपाठी (c) २०१५ 

Saturday, October 10, 2015

चंद लब्ज़ों में कैसे कह दूं .....


चंद लब्ज़ों में कैसे कह दूं मै तुमसे क्या चहता हूँ? 
चाहता हूँ कि तुम्हे कहीं बहुत दूर ले जाऊं 
ज़माने की निगाहों से तुमको छुपा के 
तुम्हारे ख्वाबो के अस्मा के तले 
तुम्हारी ख़्वाइसों के घनेरे बादलों की जमी पर 
जहाँ तुम जी भर के जी सको एक पल में सारी जिंदगी
खुश हो सको जितना पहले कभी न हुए हो 
लेकिन मै कहीं भी तुम्हारे करीब न रहूँ 
पर हमेशा तुम मेरे निगाहों में रहो 
क्योंकि मै तुम पर भी भरोसा नही करता तुम्हारे लिये
तुम्हारे लिए .....ये क्या कोई कैद होगी ?
नही जनता कब तक मै खुश रख सकता हूँ?
लेकिन जब भी मेरी ख्वाइसे तुम्हे जंजीर लगे
तुम मुझे बोल के कहीं भी चले जाना 
पर तुम नही देख पाओगे कभी भी पिछली कहानी 
मै तुम्हे कहीं, भी पीछे नही मिलूँगा इसलिए खोजना भी नही
फिर आगे का सफर सिर्फ तुम्हारा होगा 
जिसमे तुम्हारी चुनी रहों पर तुम्हारी मंज़िल होगी 
बिना किसी माझी के, फकत हाल के सहारे मुस्तकबिल् तक 
चन्द सफ़ेद बिखरे पन्नें होगे बिना किसी इबारत या अक्स के 
उनमे तुम कोई भी रंग भर सकते हो अपनी पसंद का 
जैसा भी चाहो फिर पूरा कैनवास तुम्हारा ही तो है


-----डॉ अलोक त्रिपाठी २०१५ 

Friday, September 11, 2015

मुझे जीने ही नही आता


मुझे जीने ही नही आता ये कह 
मुझे हर बार जगाती रही माँ .
आज के बाद फिर कभी नही भूलूंगा
ये कह के खुद को सुलता रहा माँ 

आज की रात आँखों की आखिरी बरसात है, 
रातों के पंछी ये गीत गुनगुनाते गये 
सुबह की लालिमा कही आँखों को सुर्ख न कर 
ये कहते कहते पलक मेरे बुझते गये 

हर रात बुने चंद अल्फाज़ हमने 
अगली तारीख में वो ही मेरी तक़दीर होगये 
अगले पल ही कौन सा तूफा आएगा 
ये ही सवाल मेरे जेहन में एक तूफान हो गये 

डॉ अलोक त्रिपाठी (१९९०)
(यह मैंने बहुत छोटे पर ही लिखी थी जाने आज क्यूँ याद आगयी )

Friday, August 21, 2015

कशिश जाने कैसी रोके है इसे बिखर जाने से

Alok Tripathi's photo.

तरन्नुम बिखरी है फ़िज़ाओं में फिर भी
फिसल रहे है जाने क्यों अल्फ़ाज़ होठों से


निगाहों को अश्कों से मोहब्बत सी होगई
नही फिसल रहे जाने क्यों अश्क आँखों से


चेहरा आईना न हुआ फ़िज़ाओं की रौनक का
कशिश जाने कैसी रोके है इसे बिखर जाने से


स्याह समुन्दर के किनारों पर उभरा अक्स कैसा
कुछ तो रोके है मेरी चीख को निकल जाने से


कुछ यूँ अंधरे है अपनी ही इबारत नही दिख रही
जाने कौन रोक लेता है कहीं भी भाग जाने से


हर बार उठ के खड़ा होता ही हूँ मेरा नाम आएगा
जाने मेरी अर्जियों को कौन उड़ा दिया बहाने से


डॉ अलोक त्रिपाठी (C) 2015

Friday, August 14, 2015

नागफनियों को तपती धुप में


मैंने अपने हाथों की लकीरों से बनाई है शबीह तेरी 
माझी में ऐसा खुबसूरत तस्स्ब्बुर नजर आये कहाँ से?

मुस्कुराते देखा है हमने नागफनियों को तपती धुप में 
पर गुलाबों के चमन में हम ये चलन लाये कहाँ से ?

माना की कोई बर्क सा अल्फाज़ नही है हिकायत में 
पर बिना तेरे अपनी तस्ब्बुर-ए-हयात सजाए कहा से ?

पा भी लें तुझे गर तेरी ही शर्तों पर ये तो कोई बात नही
खरीद के सजाई तस्वीर हम वो नूर लायें कहाँ से ?

कि मेरी उम्र से भी लम्बी है 'मेरी' व् 'उसकी' रंजिश 
मुसलसल सिलसिले के बाद फतह का जुनून लाये कहाँ से?

डॉ अलोक त्रिपाठी (१९९८) 

Friday, July 10, 2015

बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का


बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का 
गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ है सजर ये मेरे अपनों का 

सिले होठों के भीतर तूफानों की सरसराहट से टूटते सब्र 
लगता है जहर बो दिया हो किसीने अपने अरमानों का 

आवाजों को निगलते मेरी बातों के अंजाम का खौफ 
खुली हवाओं में घुला हो जहर तहजीब व् सलीकों का 

जीने का हुनर सीखते २ रूठ गयी है जिन्दगी मुझसे 
शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ मै घुटन जंजीरों का 

आपनो से इतनी नफरत कि बस भाग जाऊकही 
शिकायत किसी से नही बोझ हैं चाहत के अपनों का 

...........डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१५) 

Sunday, June 21, 2015

प्रेम या आशक्ति

प्रेम शब्द का सन्धि विग्रह यूँ होता है
प्रेम=परा +ई +म। अर्थात जो शक्ति हमे उर्ध्व की ओर ले जाये वो 'प्रेम' है। आजकल की प्रचलित भाषा में हम जिसे प्रेम कहते है वो वास्तव में आशक्ति का ही एक स्वरूप है. जिसके तीन भेद होते है. 
वासना - क्षणिक एवं तीव्र आवेगित होती है
कामना - सामान गुणों के कारण उत्त्पन्न आशक्ति
एवं श्रद्धा-स्वयं से श्रेष्ठ होने के कारण उत्त्पन्न आशक्ति
सनातन धर्म में होने वाले विवाह में इन तीनो आशक्ति से होते हुए अन्तः मोक्ष को प्राप्त हुआ जा सकता है। विवाह के तुरंत बाद ही भोग की इच्क्षा से वासना उत्पन्न होती है जो साथ २ रहते २ कामना में बदलती जाती है। और अन्तः कामना इतना ज्यादे होजाती है कि श्रद्धा का स्वरुप ले लेती है

image from 
http://legendofanomad.files.wordpress.com/2013/01/oie_18161755xwxttq28.jpg

आँसू: अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए

आँसू: अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए: एक अरसे से खुद को समझाता आ रहा हूँ  धीर धरो एक बार शकु से बैठ कर बात करेंगे गुजरे वक़्त का सलीके से हिसाब करेंगे  सबका हक हिस्...

अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए



एक अरसे से खुद को समझाता आ रहा हूँ 
धीर धरो एक बार शकु से बैठ कर बात करेंगे

गुजरे वक़्त का सलीके से हिसाब करेंगे 
सबका हक हिस्सा उसके नाम करेंगे

साल दर साल गुजर गए, एहसास बदल गए 
अब तो सपनों के भी भावार्थ बदल गए

पर आज तक वो वक़्त नही आया 
अब तक खुद के इतने करीब नही आया।

--------------- आलोक त्रिपाठी

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Thursday, June 18, 2015

..........कि हम जहाँ से खो गये


न गीत साथ दे रहें न, ही ये शाम साथ दे रही 
शबनम से इतनी धुंध है नजर रौशनी को खो रही 

आगे अँधेरी डगर है ये सोच कर भी चल रहे 
कदम मेंरे है बढ़ रहे  साँस जो ये चल रही

इस बात की खबर नही सहर कहाँ  पे हो 
इस बात की कसक नही शाम छोड़ आये 

फलक कफन कर देना जो रात मेंही सो गये 
ये खबर उन्हें भी हो कि हम जहाँ से खो गये 

(बहुत पुरानी कुछ पंक्तियाँ याद आगयी)

(C) आलोक त्रिपाठी १९९० 

Sunday, April 19, 2015

आँसू: समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में

आँसू: समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में: अगर तोड़  लेते हम खुदाई से अपने रिश्ते सारे  समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में  वो चाहते दम तोड़ गयी थीं तस्व्व...

समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में

अगर तोड़  लेते हम खुदाई से अपने रिश्ते सारे 
समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में 

वो चाहते दम तोड़ गयी थीं तस्व्वरो फकत जो 
होते वो भी मेरे आशना कर आये जिसे उसके हवाले 

बचा रखे है उसने तेरे सारे हक रहनुमा कहते है 
अदा कर देगा वो सब तेरी बेताब ख्वाइशों को 

क्या करू मै भी फकत एक इन्सान ही ठहरा 
क्यों न  बरसे सावन गमों के मुस्कुराने पे 

यूँ भी तो नहीं कि मुझे इतफाक नहीं उसके होने पे 
ये भी तो नहीं मालूम कैसे समझों इन सवालो में 

मज़बूरी यूँ कि उससे मुँह भी नही फेर सकता 
कैसे चलूँ आगे जो घिरा हूँ जो इन सवालों में 

© डॉ आलोक त्रिपाठी १९९२ 

Tuesday, March 10, 2015

........जो इस पल तुम्हारे साथ हूँ


मै तुम्हारी ज़ुल्फ़ों की तरह तुम्हारी मुश्किलें भी सुलझा लूंगा 
बस इन आँधियों के बीच मेरे हुनर का इम्तिहान न लो। 

मै तुम्हारी बेरुखी को भी तुम्हारी हक़ीक़त मान लूंगा 
बस ज़रा इस तूफानों में मेरे वफाओं का इम्तिहान न लो 

साहिल पे पहुचने तक मै हमसफ़र हूँ फिर ये सफर तुम्हारा 
यूँ बीच में हाथ छुड़ा कर मेरी ताबेदारी का इम्तिहान न लो 

मेरे फैसले पर न यकीन करो पर हवाओं का रुख तो समझो 
बीच दरिया में कूद कर उसकी रहमत का इम्तिहान न लो 

मै तो उसके क़ासिद के मानिंद हूँ जो इस पल तुम्हारे साथ हूँ 
मुझे इस तरह नज़रों से गिरा उसके सब्र का इम्तिहान न लो 

…………
© डॉ आलोक त्रिपाठी २०१५

Monday, March 9, 2015

..............दबे पैरों से आते हुए देखा है?

तूफां  को कभी तुमने सरगोशी से दबे पैरों से आते हुए देखा है?
मासूम कदमो को तन्हाइयों के तार बजाते हुए देखा है?

बीती किरदारों की उलझे शक्लों में अपनेपन की गवाही
तजुर्वों को छुए बिन नन्हे ख़्वाबों को पलको में आते हुए देखा है?

रिसते हुए जज्बातों से पिघलती मेरे वसूलों की दीवारें
सिमटने की कोशिश में, मौन लब्जों को उबलते हुए देखा है?

हौले -२ मेरी गहरी जड़ों को में समाती हुई उलझी ख्वाईसे
पल पल कमजोर बनकर रौशनी को बुझते हुए देखा है?

इसने ही बताया है आँक से अक़ीक़ को शिकस्त देने की अदा
कभी मासूम फूलों से संगदिल सनम को मुस्कुराते हुए देखा है ?

किनारे के दरकने में मिटटी की नसों में  रिसता हुआ पानी 
खुद में समा लेने के लिए अरमानों को सुलगते हुए देखा है ?

© डॉ आलोक त्रिपाठी २०१५