सरे राह मेरा हमसफर, रहा ठोकरों का काफिला
ये थकन नही रास्तों कि था मेरी तपिस का बसबा
हरकुछ समेटा रहा सफर में, समझके मेरा हमनवां
जिद न थी पाने कुछ कि चल रहा जो एक जूनून था
गुमां रहा कि सफर में हूँ एक अक्स का था बसआसरा
नाज़ था सफर पे अपने, यकीन था अपनी बजुवों पे
खौफ न रहा मंजिलों का सफर में था यूँ इब्तिदा
सफरे अब्र है मेरी पेशानी पे, हर हर्फ है एक गजल
ज्यादे की दरकार क्या, हर दर्द था एक बायबा
जब ठोकरों से ही बन रहे कहानियों के है सिलसिले
हो क्यूँ जुस्तजू मुझे मंजिलों, जब ठोकरों में है सिलसिला
-----(C) डॉ अलोक त्रिपाठी २०१६
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