ज़िन्दगी मे इसी मंझर का मुझे इंतजार अर्से से था शायद
हजारो तुफान ज़िहन मे फिर भी ज़िक्र करने का जी नहीं
ये शायद इसलिये भी हैं कि हर
अक्स पर धुंध ही छाई हैं
इस शोरगुल मे भी खुद के सन्नाटे से निकलने का जी नहीं
कुछ काशिस तो हैं जो इस ज़िन्दगी
से अब भी जोडे हैं मुझे
वर्ना इस सफर मे ख्वाबो की तपिस मे जलने का जी नहीं
कितना आसां या कितना मुशकिल हैं
फर्ज मानकर जी लेना
एक वादे के लिये अब खुद को मार कर जीने का जी नहीं
देखिये तो ये कैसी मुगालते हैं
नासीब की मेरे सुलझी ही नहीं
हाकिकते शर्मिन्दा हुई ख्वाबो से जब भी जीने का जी नहीं
© डॉ अलोक त्रिपाठी, २०१६