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Sunday, November 5, 2017

मै तुम्हारे सुर में अपना सुर नही मिला पाउँगा 
माना कि ज़माने का चलन मुझे नही पता फिर भी 
जिसने इस सोच को पैदा किया वो 'गलतियाँ' नही करता 
इसलिए मै तुम्हारे सुर में अपना सुर मिला पाउँगा 

इसलिए मै तुम्हारे सुर में अपना सुर मिला पाउँगा 

जो भी सोच उसने मुझे दी है मै उसका ही संरक्षक 
क्यूंकि 'मै' तो कुछ हूँ ही नही न कुछ हो सकता हूँ 
मेरे रूप व् मेरे कृत्य में भी सिर्फ वो ही है और कुछ नही 
मै उसके शिकायक अधिकार भी नही दे पाउँगा 

इसलिए मै तुम्हारे सुर में अपना सुर मिला पाउँगा 

माफ़ करना मै तुमको भी तो कभी नही सिखाता हूँ कुछ 
मेरा सच अगर मुझे जीने का अर्थ देता है तो जीने दो मुझे 
मै अपने स्वार्थ के लिए अपना सत्य नही त्याग सकता हूँ 
मै तुम्हारे मानदण्डो पर खरा होने के लिए नही जी पाउँगा 

इसलिए मै तुम्हारे सुर में अपना सुर मिला पाउँगा 

मै अपने भावों को तुम्हारे शब्दों में नही व्यक्त कर सकता हूँ 
नही उसकी व्याख्या का अधिकार तुमको दे सकता हूँ
जो भी है वो बिलकुल शुद्ध है सात्विक है और सत्य है 
तुम्हारे अनर्गल व्याकरण का आवरण नही चढ़ा सकता हूँ  

इसलिए मै तुम्हारे सुर में अपना सुर मिला पाउँगा 

डॉ अलोक त्रिपाठी (c) २०१७ 

Tuesday, September 19, 2017

जी करता है की बस लिखता ही रहूँ बस तेरे लिए .....


जब भी कभी दिल ने कहा की कुछ लिखू तेरे लिए 
फिर दिल ने कहा कि लिखता ही रहूँ बस तेरे लिए 
जज्बातों को सुलझता हूँ तो लब्ज़ उलझ जाते है 
लब्जों को सुलझाता हूँ तो ख्वाब बिखर जाते है 

फिर भी दिल करता है कि बस लिखता ही रहूँ तेरे लिए 


वो इक अफसाना है, जो जिन्दा रहा हमेशा ख्वाबों में 
लब्जों में न समाया कभी, बस सजता ही रहा ख्वाबों में 
कुछ अजीब सा जादू था बस बहता ही गया तेरे संग 
खुद एक तप्सरा बन गया इतराता ही रहा बस तेरे लिए 

फिर भी दिल करता है कि बस लिखता ही रहूँ तेरे लिए 

अभी भी ये सफर एक ख्वाब की मानिंद है लब्जों में 
पर उम्र गुजरना चाहता हूँ इसी ख्वाब में तेरे लिए 
जब भी चाहता हूँ महसूस करूँ तुम्हे अपने करीब 
जाने कैसे हो जाता हूँ मै खुद के करीब बस तुम्हारे लिए 

फिर भी दिल करता है कि बस लिखता ही रहूँ तेरे लिए 

ये अफसाना भी कुछ आजोब सा है नही जिक्र किताबों में 
जाने कैसी बन रही है नई दास्ताँ तुम्हारे साथ तुम्हारे लिए
हिम्मत भी नही कि नजर करूँ इस ख्वाब के उस पार
बस जी भर जी लूं और जीता ही रहूँ तुम्हारे साथ इसके साथ 

फिर भी दिल करता है कि बस लिखता ही रहूँ तेरे लिए 


(c) डॉ अलोक त्रिपाठी २०१७ 

Sunday, August 6, 2017

........फिर लौट आता हूँ आपनी उसी पुरानी दुनिया मे..


कही कोई तो तडापता तो होगा ही
आखिर ये दिल यूँ ही क्यूँ उदास हो जाता है?
किसी को तो, य़ा किसी से, मिलने की चाहत सुलगी होगी ?
क्यूँ कोई यूँ ही मायूस हो जाता है एकाएक?

ये गणित ज़रा मुश्किल तो है, वरना समझ गया होता
वैसे भी ये  प्रमेय मुझसे कब हल हुये है, जो आज होंगे
बस मेरा दिल कहता कही  कुछ तो दुखा है
जो मै रह रह कर परेशान हो उठता हूँ, बेचैन सा एकाएक

हालात बिलकुल वैसे ही होते है,
लेकिन ग्रहण जैसे कुछ ग्रसने लगता है
मन  बोझील हो जाता है, एक दर्द के साथ,
पर ये सानंटता कुछ देर मे गाएब हो जाता है, एकाएक

फिर लौट आता हूँ आपनी उसी पुरानी दुनिया मे
अपने सामान्य हालत में, बिना कुछ खोये हुए 
ऐसा दीखता है, फिर भी लगता है कुछ तो छुट गया 
जैसे कोई ट्रेन सुरंग से निकल गयी हो एकाएक.

-डॉ आलोकत्रिपाठी (२०१७)

Tuesday, July 18, 2017

.......कोई आया मेरे पास



इस जामाने में, मेरे लिये कौन आया है मेरे पास ?
ज़रूरततों के लिबास में हर कोई आया मेरे पास

लोग कहते है कि चाहतों की भीड है मेरे पास,
(ये दिल ही ज़ानता है कि बस....)
आरजू के चेहरे में जुस्तजू के साथ आया मेरे पास

गुनाह होगा अगर कहूँ कि खाली हाथ आया मेरे पास
कुछ लाता नहीं तो लब्ज कहा से होते मेरे पास

किस नामुराद को ज़िन्दगी की ऊलझने बुरी लगती है
हर कोई तो उसी मे ऊलझा हुआ आया है मेरे पास


---डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१७)

Tuesday, May 30, 2017

इश्क का बजार लाया हूँ


हमेशा रोया बहुत इन नज़रों की बेबसी पर अपने
फिरभी अंधों के शहर में आईना बेचने लाया हूँ

पूरी शिद्दत से जानता अपने इस कारोबार के फायदे
नाउम्मीदी में ही सही काफिरों को खुदा बाटने आया हूँ

तुम हँसते हो या रोते, मेरी अक्ल पर तुम्हारी रजा है
खुश हूँ की जो करने आया था वही करने आया हूँ

ये हालात की मुफ्लिशी भी मंजूर है मुझे कि मेरी है
मुझे दुनिया साथ नही ले जानी बस खाली कंधे लाया हूँ

एक फरेब है कि इन्सान जिन्दा है वरना खुदा क्यू आता?
वो तो मै हूँ जो नफरतों के शहर में इश्क का बजार लाया हूँ

(C) आलोक त्रिपाठी २०१७ 

Monday, February 27, 2017

एक हसीन गज़ल थे तुम मेरे



तुम तो अगाज थे मेरे,  अंजाम भी थे मेरे किरदार के
ख्वाबो के टूटे हर आईनों मे उभरे अक्स थे मेरे

वजुद को तुमने ही ऊकेरा था हाकीकत कि ज़मी पर
मेरी ख्वाइसो को दुआवों मे सम्हाले फनकार थे मेरे

फिजाओं मे बिखरी हँसी ने कितना सफर तय किया
कि उन्ही की खुसबू मे साँस लेती हुई ज़िन्दगी थे मेरे

इतने दूर होके भी पास होने के एहसास देते रहे मुझे
कितनी शिद्दत से लिखी एक हसीन गज़ल थे तुम मेरे

----(c) २०१७  डॉ आलोक त्रिपाठी