वो गजल आज तक मुकाम्मल न हुई
उम्र ज़िसके लिये काफियों मे काटी है
वजूद के इतने चेहरे नजर आये मुझे
जाने कितने सवालों मे ये ज़िन्दगी बाटी है
हर मंझर पर ठहरता है दिल कि मंजिल है
शक्ल जाने कितनी तस्वीरों मे ऊतारी है
ज़रा समहल के रखो इस आईने को य़ारों
बडी मुश्किल से उनकी तस्वीर इसमे ऊतारी है
हमेशा से रूठे रहे ज़िन्दगी के माएने मुझसे
चन्द उसूलों के बुते हमने ज़िन्दगी गुजारी है
हालात मुझे खामोशी पर मजबुर करते है यारो
उम्मीदो ने ज़िन्दगी को हज़ार टुकडों मे बाटी है
-- © डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१६)
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