एक सुप्त सागर की
गोद से एक मोती निकला
ये समझा ये माना
अभी तक किसी ने नही देखा
अपने ही रक्त से
रक्ताभ लालिमा दी उसे
जब आच्छा नही लगा
तो आसुओं से धो दिया
मेरा शक जाने कब
विश्वास में बदल गया
और मेरे तर्कों की
कोई भूमिका नही मिली
पहले तो ये जाना की
को चमकता नूर मोती है
जब वो सच से
मुखातिब हुआ तो नजर से ढल गया
गम इसका नही कि वो
मेरी नजर से बुझ गया
गम अपनी कसक की
कीमत या फितरत का भी नही
गम बस ये की आँख का
वो मोती आखों से ढल गया
फिर जाने कहाँ गया
और बस चला ही गया
गम ये रहा कि
आँख का नूर पैरों में न गिरे
ये जहाँ उसे कभी
झुकी नजरों से न देखे
बस इसी स्वप्न की
तहरीर में लिखता हूँ
मै जीता हूँ कि उसे फिर से पलकों में उतार लूं
आप ने लिखा... हमने पढ़ा... और भी पढ़ें... इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना शुकरवार यानी 09-08-2013 की http://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com पर लिंक की जा रही है... आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस हलचल में शामिल रचनाओं पर भी अपनी टिप्पणी दें...
ReplyDeleteऔर आप के अनुमोल सुझावों का स्वागत है...
कुलदीप ठाकुर [मन का मंथन]
सुन्दर रचना
ReplyDelete