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Saturday, September 24, 2011

ये जिन्दगी नजर आयी मुझे ....




गर्मी की दोपहर में बालो में उग आये एक बूँद की तरह 
या फिर जलती हुयी जमीं से उड़ते हुए वाष्प की तरह 
कभी एक अजनवी सी मुस्कराहट की तरह 
सर्द हवावों के झोकों में उड़ते जुल्फों में उलझे हुए सूखे फूल की तरह 
कभी मुझे देखती हुयी सहमी सी उलझी उनकी नजर की तरह 
या फिर तेज़ी गुजर गयी उनकी एक मुस्कुराहट की तरह 
कभी -२ तो नजर आयी अपने दिल में छुपा लेने की चाहत की तरह 
और कभी सूरजमुखी के फूल जैसे रूठी हुई उनकी यादों की तरह 
ये जिन्दगी हर जगह हर पल नजर आयी मुझे चंद ख्वाबों की तरह 

कभी ये नजर आयीमेरे ही कहानी पे गिरी एक काली स्याही की तरह 
कभी किताबों  की इबारत में उभर आयी उनकी तस्बीर की तरह 
या फिर उनकी जुबान पर कभी    पाई उस चाहत के इकरार की तरह 
यादों में आखों के बहते पानी जैसे दिल में उठते हुए दर्द की तरह 
पर मुझे तो हमेशा नजर आयी एक घरौदें को मिटा कर हंसती हुई मौज की तरह 


अल्फाजों  की भीड़ में दब के मर गयी उस मासूम की ख्वाइस की तरह 
उनके जुल्फों में उलझे हुए मेरे हाथ से सुलझ जाने की दर्द की तरह 
या मुझे न कोस पाने की एवज में उभर आये उनके आंसू की तरह 
या फिर कागज़ में संभाल के रखे उनके सूखे हुए अश्को की तरह 
ये जिन्दगी नजर आयी मुझे जिन्दगी को पाने की चाहत  में 
जिन्दगी की तेज़ रफ़्तार में उड़ गये माझी के हर हिसाब की तरह 

झील के मौजों में जिन्दगी से लड़ती हुई एक चीटीं की तरह 
या फिर बचपन में बनाई कागज़ की नाव को खेते हुए एक चीटे की तरह 
और उसकी  बेबसी  पर हंसती  मेरी  मुकुराहट  की तरह 
और मेरी मासूमियत पर हंसते  हुए उस विधाता की तरह 


क्या क्या कहूं बस मुझ पर हसती हुई मेरी जिन्दगी की तरह 
सेहरा में अकेले जिन्दा नागफनी जैसे जीते मेरे बचपन की तरह 
या फिर अनायास ही उग आये एक लम्बे चीड़ जैसे यौवन की तरह 
समंदर के पानी में प्यासे हुए मेरे मन की तरह 
या फिर मेरे हालत की तरह ही अस्त व्यस्त भटकते मुस्कुराते फकीर की तरह 
या मुर्दे में पल भर के आ गयी जिन्दा धड़कन की तरह 
या फिर उसे झकझोर के उठा देने की मेरी बेवकूफ चाहत की तरह 
कभी -कभी  तो क्या अक्सर ये नजर आयी है मुझे 
मेरे हाथो में मुह छुपा कर रोते मेरे चेहरे की तरह 


सोती हुई रातों में झोपडी में टिप टिप करते  पानी की बूँद की तरह 
एक ही विस्तर पे सोये तीन भाइयों के  बीच फटती हुई एक रजाई की तरह 
तूफानी नीद में पिताजी की पैर दबाने के आदेश की तरह 
पढ़ते समय खाना खाने के लिए आवाज़ लगाती मेरी माँ की तरह 
या फिर घर के बाहर भूख लगने पर शून्य में गूंजती माँ की आवाज़ की तरह 
अक्सर गर्म गर्म रोटियों से बेटे के हाथों को जलने से बचाने के लिए 
बापू के हाथों से ठंढी होती हुई उस रोटी की तरह 


मेरे हर काम में गलतियाँ ढूढती भाइयों की नजर की तरह 
मुह में कभी न समां पाने वाले दादी के उस निवाले की तरह 
मुझे आदर्श बालक बनाने की बाबा के जिद की तरह 
या फिर मेरी हर गलतियों के बाद भी मुझे अच्छा मानने के दादी की जिद की तरह 
या फिर माघ की ठंढी पुरवा में घुमती मेरे चाचा के गोद की तरह 
मेरी अधखुली नीद में गावों के रास्तो पे टहलाते चाचा की तरह 
मेरे चेहरे पे छा गए गर्त को धोते हुए मेरी मासूम बहन के नन्हे हाथ की तरह 
या फिर फेरी वालों से ख़रीदे दादी के आम की मिठास की तरह 
या फिर छोटे भाई के हाथों से पड़े थप्पड़ की तरह 


या फिर मेरी हर हार के बाद लड़खड़ाते कदमो को सँभालते बापू की तरह 
या फिर हर हार को जीत में बदल देने की उनकी जिद की तरह 
यूँ तो अक्सर नजर आयी ये जिन्दगी मुझे 
जिन्दगी को समझाने के गुरूजी के संकल्प की तरह 
या फिर सर्दियों की धुप में एक फकीर को तेल लगाने के सुख की तरह 
या फिर उन्ही सर्द रातो में खाने की थाली लिए भटके उस डर की तरह 
ये सारा कुछ सिमट जाता है एक बार बापू के सीने में चिपक जाने की तरह 
ये जिन्दगी मिली तो मुझे हर बार पर हर बार फिसल गयी जोर से पकडे मक्खन की तरह 

19 comments:

  1. Wow sir...... awesome as usual.......... simply amazing....

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  2. Kya baat hai SIR....a good one...........

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  3. indeed a master piece .... awsum combo of biotech professor n poet.... :)

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  4. Bahut sunder ....... very touchy :)

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  5. achhi kavita hai!! kaafi badi bhi hai. lekin Dil se likhi gaee hai
    bahut khoob

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  6. Bahut badiya sir ji awesome, lagay rahu aap tu pehlay se hi achay poet, writer, artist and moreover achay teacher hu...wish u success ahead...

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  7. वैसे ही जैसे किसी मेरी कविता की नक़ल की तरह ... बहूत उम्दा कविता भी और १५ साल से संभालने का हुनर भी . मेरी तो कई कविताएँ गम हो गईं आज तक ढूंढ़ रहा हूँ ...

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  8. जो लोग खुद से ही लिखते है वो ही सभलना भी जानते है डॉ साब

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  9. बेहतरीन..!!!! और भाषा पर इतनी अच्छी पकड़..!!! कमाल है..!

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  10. Amazing poem... but lit bit lengthy

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  11. AMAZING!!!!!!!!!!
    Don't have words to praise!!!!
    Zindagi ki sachchaai bayaan ki hai bade hi khoobsoorat andaaz mein........
    Dil ki aawaz hai!!!!!!
    Can just say 'WOW'............

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  12. Great Praising !!!!!!!!!!!!1many thanks to you 'Anu' I will try to do just with your appreciation in future
    Thanks to every one who gave their pricious time on my effort.

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  13. भैया! मैंने काफी वक़्त लिया इस रचना पर अपनी टिप्पणी देने में, कारन सिर्फ समय का अभाव और इस रचना की उत्कृष्टता जिसकी गहराई को समझने में इस नासमझ को थोडा वक़्त लगा!
    इस को पढने के बाद मुझे लगा की इस कविता का title पहले सोचा गया है और उस title पर पूरी रचना को लिखा गया है.यह अपने आप में ही बहुत बड़ी बात है.
    अपने स्वाभाव की तरह , मैं इनकी कुछ कमियों को भी उजागर करना चाहूँगा, आशा है आप सिर्फ इसे सुझाव की तरह लेंगे.
    इस कविता की दूसरी पंक्ति "या फिर जलती हुयी जमीं से उड़ते हुए वाष्प की तरह ",
    अगर "वाष्प" की जगह "भाप" होता तो यह और ज्यादा बेहतर होती! क्युकी पूरी कविता को सरल हिंदी में लिखा गया है, "भाप" शब्द जनमानस में वाष्प से ज्यादा प्रचलित और इस कविता की पंक्तियों के साथ ज्यादा मेल खाता है!
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद भैया इतनी मर्मस्पर्शी कविता को हमारे सम्मुख रखने के लिए :)

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  14. wah ! kitni fursat di hai aapne iske liye ... kitni shanti mil rahi hai padh ke, aur andaza lag raha hai ki kitni ruhaniyat se likhi gai hai. achha laga.

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  15. @Ajendra: You are right but what is there let it be there I will try to incorporate your suggestion in next work and many thanks to encourage.
    @ Vivek Your comments bound me to do some thing wonderful if I would be at all...

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  16. the USP of this poem is simplicity.that's y it reaches directly to the soul. thoughts are innocent. they dominant over all technicalities that a poem needs.
    its good you didnt compromise with your expression for technicalities!
    Its SIMPLE.....and you know what does it mean to me.:)

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  17. This comment has been removed by the author.

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  18. @http://hastakshar.wordpress.com/ एहसासात को जैसे महसूस किया और बिलकुल उसी तरह कागज पे उकेर दिया जाये तो उससे एक अन्यास अपनापन सा हो जाता है वो लगभग सभी को छू के गुजर जाता है ....................क्या ये लेखनी की सार्थकता नहीं है?

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