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Sunday, April 19, 2015

समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में

अगर तोड़  लेते हम खुदाई से अपने रिश्ते सारे 
समेत लेते वो "सब" जो नहीं था हाथ की लकीरों में 

वो चाहते दम तोड़ गयी थीं तस्व्वरो फकत जो 
होते वो भी मेरे आशना कर आये जिसे उसके हवाले 

बचा रखे है उसने तेरे सारे हक रहनुमा कहते है 
अदा कर देगा वो सब तेरी बेताब ख्वाइशों को 

क्या करू मै भी फकत एक इन्सान ही ठहरा 
क्यों न  बरसे सावन गमों के मुस्कुराने पे 

यूँ भी तो नहीं कि मुझे इतफाक नहीं उसके होने पे 
ये भी तो नहीं मालूम कैसे समझों इन सवालो में 

मज़बूरी यूँ कि उससे मुँह भी नही फेर सकता 
कैसे चलूँ आगे जो घिरा हूँ जो इन सवालों में 

© डॉ आलोक त्रिपाठी १९९२ 

3 comments:

  1. हिंदी महान, उर्दू जबान। दोनों से मिलकर बना गान। पढकर कमलेश यह करे ज्ञान, आलोक अधिक कि पाठक महान??

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  2. डॉ. साहब! आपकी कविता छायावाद से प्रभावित, रहस्यपूर्ण, सफलता और नैतिकता का द्वन्द्व प्रस्तुत करती एवं शायरी और कविता दोनों का मिश्रण है, एवं पाठक के लिए चिंतन के कई आयाम छोडती है। साधु वाद!

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  3. बहुत -२ बहुत धन्यवाद डॉ साब। . आपका ज्ञान इसे और बेहतर बनाने के लिए मार्गदर्शन करेगा

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