बड़ा अजीब सा मंझर है ये मेरी जिन्दगी की उलझन का
गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ है सजर ये मेरे अपनों का
सिले होठों के भीतर तूफानों की सरसराहट से टूटते सब्र
लगता है जहर बो दिया हो किसीने अपने अरमानों का
आवाजों को निगलते मेरी बातों के अंजाम का खौफ
खुली हवाओं में घुला हो जहर तहजीब व् सलीकों का
जीने का हुनर सीखते २ रूठ गयी है जिन्दगी मुझसे
शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ मै घुटन जंजीरों का
आपनो से इतनी नफरत कि बस भाग जाऊकही
शिकायत किसी से नही बोझ हैं चाहत के अपनों का
...........डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१५)
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