चल चाँद तुझे ले चले अपने गोरी के गाँव रे
तू वहां उसे बतलाना कैसे गुजारी शाम रे
चाहत वहां पर यूँ बरसे जैसे बरसे सावन रे
मेरी आखें मुझसे पुछें कब भीगे तेरा दामन रे
हर दिन वहां का होली था हर रात दिवाली रे
सुना रहा मेरा
तन -मन सुनी रात हमारी रे
नागफनी सा बचपन चिड सा यौवन
ना वो याद पुरानी रे
मुड़ना चाहूँ तो क्या देखूं आगे वही रेत पुरानी रे
राहें वहां की उची-नीची बेरहम वहां के कांटे रे
बूंद बूंद कर पीता रहा अपनी ही आँख का पानी रे
©आलोक त्रिपाठी 1999
बहुत खूब ..
ReplyDeleteवैसे एक बात तो सच है काल्पनिक रूप से ही सही मगर चाँद हम सभी के मन के बहुत करीब है कितनी बेफिक्री से हम अपने मन की बात उससे कह लेते हैं ....
आपके पुराने खजाने के मोती तो बेशकेमती हैं,
bahut khubsurat ahsas
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