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Wednesday, September 5, 2012

चल चाँद तुझे ले चले



चल चाँद तुझे ले चले अपने गोरी के गाँव रे 
तू  वहां  उसे बतलाना  कैसे गुजारी शाम रे 

चाहत  वहां पर  यूँ बरसे जैसे बरसे सावन रे 
मेरी आखें मुझसे पुछें  कब भीगे तेरा दामन रे 

हर दिन वहां का होली था हर रात दिवाली रे 
सुना रहा मेरा  तन -मन सुनी रात हमारी रे 

नागफनी सा बचपन चिड सा यौवन  ना वो याद पुरानी रे 
मुड़ना चाहूँ  तो क्या देखूं आगे वही  रेत पुरानी रे 

राहें वहां की उची-नीची बेरहम वहां के कांटे रे 
बूंद बूंद कर पीता रहा अपनी ही आँख का पानी रे 


©आलोक त्रिपाठी  1999 

2 comments:

  1. बहुत खूब ..
    वैसे एक बात तो सच है काल्पनिक रूप से ही सही मगर चाँद हम सभी के मन के बहुत करीब है कितनी बेफिक्री से हम अपने मन की बात उससे कह लेते हैं ....
    आपके पुराने खजाने के मोती तो बेशकेमती हैं,

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