साहिलों
ने जब से दरिया से मुह मोड़ लिया
दरिया
ने भी खुद में सिमटना सीख लिया
उसे
भी बहुत दूर लगता है किनारे तक सफर
अपनी
ही पलकों में मुस्कुराना सीख लिया
हर
आती-जाती नावों से लिपट कर जीती है
मज़िलों
को किश्तों में जीना सीख लिया
खुश
होने की कीमत पलक भर आंसूं ही तो थे
खुशियों
को देख पलकें झुकाना सीख लिया
तारीख
उसकी वफाओं को जो नाम दे दे
उधार
की ही सही जीना उसने सीख लिया
किनारों से बिछड़ कर कोई जी नहीं पाया
जिद से ही शायद से उसने जीना सीख लिया
---डॉ अलोक त्रिपाठी (२०१२)
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