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Monday, May 14, 2018

कुछ टूटे हुए कांच


तुम्हारा हुसन एक गज़ल एक ख्वाब है मेरे हायात का
तुमसे मिला तो मुझे लगा, जैसे मैं ज़िंदा हूँ तुम्हारे लिए


अलोक


तुम्हारी हर ह्रफे वफा पर कायम है ये साये जहां मेरा
ये कैसे कहुं कि एक तेरी बेरुखी से दारक्ता है ये साया

अलोक

पैमाने मे भी ज़िन्दगी के कई रंग छलकते, 
कभी गज़ल कभी मिसरा बन टपकते है
दो घुंट मे जब उनकी य़ादों मंजर जवां हो 
तो आँखो मे शाम के स्याह साये उभरते है

अलोक

दर्द हैं दिल में पर इसका ऐहसास नहीं होता,
रोता हैं दिल जब वो पास नहीं होता,
बरबाद हो गए हम उनकी मोहब्बत में,
और वो कहते हैं कि इस तरह प्यार नहीं होता

अलोक 


दिल की अदालत ने उसे कभी मुजरिम नही कुबूला
उसके  हर गुनाह की तर्के ए वफ़ा हम रखते है


अलोक

मुस्कुराना इतना मुश्किल भी होगा कभी सोचा भी न था
ज़ितना कभी अदा न कर पाऊँ वो कीमत चेहरा मांगता है

अलोक 


मेरी शामो-सुबह गिरवी है मेरे हसरतों के दर पर
मुझे कुछ वकत ख्वाइसों को मुझसे जुदा रहने दे



अलोक 

मैं वो ख्वाब नही ज़िसे सजा ले कोई अपनी पलको पे 
चन्द बिखरे पन्नो में सिमटी ये हिकायत है मेरी

अलोक 

राहों में उन्ही पत्थरों पर सर पटकना पडा 
जिनको मेरे दर्द का कोई इल्म ही ना था

अलोक 

कुछ तो दर्द पिघले और मैं कुछ लिखूँ
ज़मा हुआ दर्द सीने में ही सूख रहा है

अलोक 



मैं तो बस खुद की ही य़ादो में बिखरता गया
कहाँ किसी ने अपनी चाहत का इजहार किया
मैं ही पत्थर को खुदा बनाने जिद्द पर अडा रहा
बिखरना तो अंजाम था, य़ादो का काफिला भी गया

अलोक 


रात भर का सफ़र है 
और बेचारा चाँद तनहा 
बस एक ग़ज़ल का साथ 
गुजर जाये ये उम्र तन्हा

अलोक 

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