
ऐ प्रेम, तुम बस अव्यक्त
रहो,
अन्नन्त
रहो, अशेष रहो।
बिन
आधार के प्रवाह बनो,
बिन
ध्यान के अराध्य रहो।
चेतन
होकर भी अवचेतन बन
सृष्टि
में तुम शाश्वत प्रवाह
रहो
आसक्ति,
अनासक्ति से सूदूर,
अविरल
अनन्य, पर निर्भाव रहो।
सासों
सदृश जीवन बन जियो
तुम
होने की बस अनुभूति
रहो
परीक्षा
व परिणाम कोसों दूर
वायु
सा सरल, समीकरण रहो
बिन
साधन, साध्य की साध बनो
अविकल,
निश्छल, निर्विघ्न बहो,
हे प्रेम! तुम स्वयं में
समष्टि बनो,
समरस
सनातन सर्वत्र रहो
(c) डॉ
अलोक त्रिपाठी, २०१९
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