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Tuesday, July 18, 2017

.......कोई आया मेरे पास



इस जामाने में, मेरे लिये कौन आया है मेरे पास ?
ज़रूरततों के लिबास में हर कोई आया मेरे पास

लोग कहते है कि चाहतों की भीड है मेरे पास,
(ये दिल ही ज़ानता है कि बस....)
आरजू के चेहरे में जुस्तजू के साथ आया मेरे पास

गुनाह होगा अगर कहूँ कि खाली हाथ आया मेरे पास
कुछ लाता नहीं तो लब्ज कहा से होते मेरे पास

किस नामुराद को ज़िन्दगी की ऊलझने बुरी लगती है
हर कोई तो उसी मे ऊलझा हुआ आया है मेरे पास


---डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१७)

Tuesday, May 30, 2017

इश्क का बजार लाया हूँ


हमेशा रोया बहुत इन नज़रों की बेबसी पर अपने
फिरभी अंधों के शहर में आईना बेचने लाया हूँ

पूरी शिद्दत से जानता अपने इस कारोबार के फायदे
नाउम्मीदी में ही सही काफिरों को खुदा बाटने आया हूँ

तुम हँसते हो या रोते, मेरी अक्ल पर तुम्हारी रजा है
खुश हूँ की जो करने आया था वही करने आया हूँ

ये हालात की मुफ्लिशी भी मंजूर है मुझे कि मेरी है
मुझे दुनिया साथ नही ले जानी बस खाली कंधे लाया हूँ

एक फरेब है कि इन्सान जिन्दा है वरना खुदा क्यू आता?
वो तो मै हूँ जो नफरतों के शहर में इश्क का बजार लाया हूँ

(C) आलोक त्रिपाठी २०१७ 

Monday, February 27, 2017

एक हसीन गज़ल थे तुम मेरे



तुम तो अगाज थे मेरे,  अंजाम भी थे मेरे किरदार के
ख्वाबो के टूटे हर आईनों मे उभरे अक्स थे मेरे

वजुद को तुमने ही ऊकेरा था हाकीकत कि ज़मी पर
मेरी ख्वाइसो को दुआवों मे सम्हाले फनकार थे मेरे

फिजाओं मे बिखरी हँसी ने कितना सफर तय किया
कि उन्ही की खुसबू मे साँस लेती हुई ज़िन्दगी थे मेरे

इतने दूर होके भी पास होने के एहसास देते रहे मुझे
कितनी शिद्दत से लिखी एक हसीन गज़ल थे तुम मेरे

----(c) २०१७  डॉ आलोक त्रिपाठी 

Friday, December 23, 2016

आँसू: काफियों मे काटी है

आँसू: काफियों मे काटी है: वो गजल आज तक मुकाम्मल न हुई  उम्र ज़िसके लिये काफियों मे काटी है वजूद के इतने चेहरे नजर आये मुझे  जाने कितने सवालों मे ये ज़िन्द...

काफियों मे काटी है


वो गजल आज तक मुकाम्मल न हुई 
उम्र ज़िसके लिये काफियों मे काटी है

वजूद के इतने चेहरे नजर आये मुझे 
जाने कितने सवालों मे ये ज़िन्दगी बाटी है

हर मंझर पर ठहरता है दिल कि मंजिल है 
शक्ल जाने कितनी तस्वीरों मे ऊतारी है

ज़रा समहल के रखो इस आईने को य़ारों 
बडी मुश्किल से उनकी तस्वीर इसमे ऊतारी है

हमेशा से रूठे रहे ज़िन्दगी के माएने मुझसे 
चन्द उसूलों के बुते हमने ज़िन्दगी गुजारी है

हालात मुझे खामोशी पर मजबुर करते है यारो 
उम्मीदो ने ज़िन्दगी को हज़ार टुकडों मे बाटी है

-- © डॉ आलोक त्रिपाठी (२०१६)

Monday, August 22, 2016

.................फिर भी ज़िक्र करने का जी नहीं


ज़िन्दगी मे इसी मंझर का मुझे इंतजार अर्से से था शायद
हजारो तुफान ज़िहन मे फिर भी ज़िक्र करने का जी नहीं

ये शायद इसलिये भी हैं कि हर अक्स पर धुंध ही छाई हैं
इस शोरगुल मे भी खुद के सन्नाटे से निकलने का जी नहीं

कुछ काशिस तो हैं जो इस ज़िन्दगी से अब भी जोडे हैं मुझे
वर्ना इस सफर मे ख्वाबो की तपिस मे जलने का जी नहीं

कितना आसां या कितना मुशकिल हैं फर्ज मानकर जी लेना
एक वादे के लिये अब खुद को मार कर जीने का जी नहीं

देखिये तो ये कैसी मुगालते हैं नासीब की मेरे सुलझी ही नहीं

हाकिकते शर्मिन्दा हुई ख्वाबो से जब भी जीने का जी नहीं


© डॉ अलोक त्रिपाठी, २०१६  


Thursday, March 17, 2016

मेरी आरजुएं है वेवफा....


मुझे मंजिलों की  जुस्तजू मेरी हसरतें है वेवफा
सरे राह मेरा हमसफर, रहा ठोकरों का काफिला 

ये थकन नही रास्तों कि था मेरी तपिस का बसबा 
हरकुछ समेटा रहा सफर में, समझके  मेरा हमनवां 

जिद न थी पाने कुछ कि चल रहा जो एक जूनून था 
गुमां रहा कि सफर में हूँ एक अक्स का था बसआसरा 

नाज़ था सफर पे अपने, यकीन था अपनी बजुवों पे 
खौफ न रहा मंजिलों का सफर में था यूँ इब्तिदा

सफरे अब्र है मेरी पेशानी पे, हर हर्फ है एक गजल

ज्यादे  की दरकार क्या, हर दर्द था एक बायबा

जब ठोकरों से ही बन रहे कहानियों के है सिलसिले 
हो क्यूँ जुस्तजू मुझे मंजिलों, जब ठोकरों में है सिलसिला 


-----(C) डॉ अलोक त्रिपाठी २०१६ 

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