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Tuesday, October 21, 2014

सिर्फ 'वो'

अंधेरे को तेजी से बढ़ने दो
बढ़ते रहने दो और फिर
सघनतम होने दो। …
क्यूंकि उससे ही प्रस्फुटित होगा प्रकाश
जो सनातन होगा, शाश्वत होगा, चिरंतम् होगा
और सिर्फ वो ही होगा सिर्फ 'वो'

आलोक 

Saturday, October 11, 2014

मै जो भी कर रहा हूँ वही मेरा सच है

आज जो मेरे पास है, जब वो ही मेरा हक़ है,
वो ही मेरे माझी के दरख्त पर लगा फल … 
फिर मै जो भी कर रहा हूँ वही मेरा सच है. 

मै कहाँ से क्यूँ मुड़ गया, कहाँ आगया, 
ये कोई और कैसे बता पायेगा मुझे ?
कोई यूँ भी तो नही जिसने मुझे देखा हो पूरा

उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नही हिलता 
फिर ,मेरी गलतियां मेरे हिसाब में क्यों डालते हो?
या जो कर सकता था उसमे से बचा कैसे लिया?

हयात के फलसफे कागज़ों पे हु-ब- हु उत्तर नही सकते 
वरना मै भी अपनी गलतियों गुनाहो का हिसाब देता 
और फिर देखता वक़्त व् ज़माने की मुंसिफ़ी 

कुछ तो है ऐसा जिसे उसने सिर्फ अपने लिए रखा है 
और तुम्हे शायद  नही बनाया है मुंसिफ उसने 
बेहतर ये ही होगा कि पूछो मुझसे नाकामियों की वजह 

कुछ तो बचा रहने दो मुस्तकबिल के खातिर भी 
इंतज़ार के मायनो को भी जिन्दा रहने दो 
मेरी कामयाबियां ही बया कर देंगी मेरे इन्तहां का वजूद 

(c) डॉ अलोक त्रिपाठी (1994)


Tuesday, April 29, 2014

कि उसे अपनाना है तो उसे अपना न बना


वो जो जलता रहा उम्र भर चिराग बन कर
 उसके वफाओं का कुछ तो सिला दे पाता 
लहूलुहान जज्बातों का दर्द समाये पलकों पे 
सहमे आंसू, उंगलियों का किनारा तो दे पाता  

जिसका हाल जल रहा हो माझी के ख्यालों में 
उसके मुस्तकबिल की आरज़ू क्या करे ?
तमाम उम्र के दर्दो को हम क्या समहल पाते,
कुछ दूर साथ चलने का सहारा तो बन पाता 

लडखडाते चिरागों ने दी है गवाही कि 
उसकी बदनसीबी की जो मेरे दर तक ले आयी
पनाह न दे पाया उसे न सही उसके जिस्म को 
काँटों में उलझाने का दर्द मै तो न पाता 

जो कल की ठंढ में जम गया ज़माने की 
नजर में फकत  एक शक्श था लेकिन  
उसको बचा मुमकिन न था न सही 
काश अपना कह के एक बार गले तो लगा पाता 

मेरा रब उसे मेरे हिस्से की तकदीर भी उसे 
दे ही न पाया कि उसका दर्द बढ़ न जाये
तकदीर ने मुझसे बस इतना ही कहा 
कि उसे अपनाना है तो अपना न बना

ãडॉ आलोक त्रिपाठी (2009)

Saturday, April 19, 2014

वो खफ़ा हो गया है मुझसे बिना कुछ कहे


उसने कुछ इस तरह सजा दी है गुनाहों की मेरे
कि रूठ कर छुप गया है बिना कुछ कहे

इंतजार हो मेरे टूट के बिखरने का शायद
देख रहा है मुझे कहीं से बिना कुछ कहे

जी रहा हूँ मै ख़ामोशी से इसी यकी पर
कि आके सम्हाल लेगा मुझे बिना कुछ कहे

गुमां है कि उसके तकलीफ की इन्तहां होगी
मुड के ख़ामोशी से चला गया बिना कुछ कहे

 दर्द जाने से ज्यादे उसके तकलीफ का है
वक्त गुजरता है माफ़ी में बिना कुछ कहे

दर्द बढ़ता है तो निगाहें छलकती है मेरी
करीब आ रहा है अब वस्ल बिना कुछ कहे 

डॉ अलोक त्रिपाठी २०१४ 

Friday, August 16, 2013

तेरी हर अदा पर ग़ज़ल लिखूं
तेरी हर खता पर ग़ज़ल लिखूं
तू प्यार की एक हसीन किताब है
किताब पर आशार क्या लिखूं

तेरी पलकों में जीवन के सपने है
इन सपनों पर ह्या के परदे है
उनके पीछे मेरे जीने की राहे है
पलको के उठ्ने का अहसास क्या लिखूं

इस चश्मे नूर की इबादत हो
तेरे चाहतो के रौशन है ये साया मेरा
तुम ही तो उसके ख्वाइशों की इबारत हो
तुम्हारे एतबार का अहसास क्या लिखूं 

कायनात का एक हसीन ख्याल हो
तुम तो उसके होने की गवाह हो
उसकी मुसब्बरी को अल्फाज़ क्या दूं
ये तो कुफ्र है उसके ख्वाबों को ख्याल क्या दूं 

(C) डॉ अलोक त्रिपाठी २००४ 

Monday, August 5, 2013

मै जीता हूँ कि उसे फिर से पलकों में उतार लूं

एक सुप्त सागर की गोद से एक मोती निकला 
ये समझा ये माना अभी तक किसी ने नही देखा 
अपने ही रक्त से रक्ताभ लालिमा दी उसे 
जब आच्छा नही लगा तो आसुओं से धो दिया 
मेरा शक जाने कब विश्वास में बदल गया 
और मेरे तर्कों की कोई भूमिका नही मिली 
पहले तो ये जाना की को चमकता नूर मोती है 
जब वो सच से मुखातिब हुआ तो नजर से ढल गया 
गम इसका नही कि वो मेरी नजर से बुझ गया 
गम अपनी कसक की कीमत या फितरत का भी नही 
गम बस ये की आँख का वो मोती आखों से ढल गया 
फिर जाने कहाँ गया और बस चला ही गया 
गम ये रहा कि  आँख का नूर पैरों में न गिरे 
ये जहाँ उसे कभी झुकी नजरों से न देखे 
बस इसी स्वप्न की तहरीर में लिखता हूँ 
मै जीता हूँ कि  उसे फिर से पलकों में उतार लूं 

-© डॉ आलोक त्रिपाठी १९९८ 

Sunday, April 21, 2013

मैंने कैसी बुजदिली कर ली


हमने तो बिना बुत के ही आशिकी  ली 
कि बुत की जुस्तजू में बसर जिन्दगी कर ली 
हर अक्स को दर्द की सूरत देने की कोशिश की  
कि बादलों में उभरे तस्वीरों  से दोस्ती कर ली 
हयात के रुखसार पर उभरे जो भी सारे रंग 
बस उन्ही से हमने  दर्द की वन्दगी कर ली 
उसने तो बस एक कशिश ही दी थी मुझे 
वक्त ने ये न जाने कैसी मौसिकी कर ली 
यूँ  ही तो था की मेरे आसुओं की सूरत न थी 
कि दिल लगा कर मैंने कैसी बुजदिली कर ली 

ã डॉ आलोक त्रिपाठी 2013