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Friday, November 9, 2012

आंसू


तुम्हारा नही हूँ मै फिर भी तुम्हारे लिए हूँ
दूर हूँ या तुम्हारे पास हूँ तुम्हारे लिए हूँ

गिरा जो पलकों से तो दामन में सिमट जाऊंगा
नूर बनकर जिया आँखों की, वो तुम्हारे लिए हूँ

कभी हर ख्वाब का हमसफर था, एतबार था
अब माझी का एक ख्वाब हूँ, तुम्हारे लिए हूँ

हसरतों के आगोश में जिया, मै एक हसरत हूँ
तुम्हरी मुस्कुराहटों का गवाह हूँ, तुम्हारे लिए हूँ

जाने क्यूँ तुम मिटा देना चाहते हो मेरा वजूद
तुम्हारी यादों की हर सरगम में हूँ, तुम्हरे लिए हूँ

किसी उम्मीद में नहीं, किसी मुगालतों में नही हूँ
बस मै एक ख्वाब हूँ जो सिर्फ तुम्हारे लिए हूँ 

--------- © डॉ अलोक त्रिपाठी (२०१२)


Thursday, November 1, 2012

जीना सीख लिया




साहिलों ने जब से दरिया से मुह मोड़ लिया
दरिया ने भी खुद में सिमटना सीख लिया
उसे भी बहुत दूर लगता है किनारे तक सफर
अपनी ही पलकों में मुस्कुराना सीख लिया
हर आती-जाती नावों से लिपट कर जीती है
मज़िलों को किश्तों में जीना सीख लिया
खुश होने की कीमत पलक भर आंसूं ही तो थे
खुशियों को देख पलकें झुकाना सीख लिया
तारीख उसकी वफाओं को जो नाम दे दे
उधार की ही सही जीना उसने सीख लिया
किनारों से बिछड़ कर कोई जी नहीं पाया
जिद से ही शायद से उसने जीना सीख लिया  
---डॉ अलोक त्रिपाठी (२०१२)

Wednesday, September 5, 2012

चल चाँद तुझे ले चले



चल चाँद तुझे ले चले अपने गोरी के गाँव रे 
तू  वहां  उसे बतलाना  कैसे गुजारी शाम रे 

चाहत  वहां पर  यूँ बरसे जैसे बरसे सावन रे 
मेरी आखें मुझसे पुछें  कब भीगे तेरा दामन रे 

हर दिन वहां का होली था हर रात दिवाली रे 
सुना रहा मेरा  तन -मन सुनी रात हमारी रे 

नागफनी सा बचपन चिड सा यौवन  ना वो याद पुरानी रे 
मुड़ना चाहूँ  तो क्या देखूं आगे वही  रेत पुरानी रे 

राहें वहां की उची-नीची बेरहम वहां के कांटे रे 
बूंद बूंद कर पीता रहा अपनी ही आँख का पानी रे 


©आलोक त्रिपाठी  1999 

Saturday, September 1, 2012

और ये ही है मेरा सच






आज जो मेरे पास है, जब सिर्फ वो ही है मेरा हक  
वो ही मेरे माज़ी के पौधे पे लगा फल, 
तो फिर मै जो कर रहा हूँ वो ही है मेरा सच
जब उसकी मर्जी के बिना पत्ता नही हिलता 
जब मै "कर्ता" हूँ ही नही या कुछ कर ही नही सकता 
तो फिर ये हंगामा ही क्यूँ , ये धुंध किस बात की 
फिर मैंने भी वो ही किया जो मै कर सकता था !
और ये ही है  मेरा सच 
मै अपना सच परिभाषित का हक तुम्हे नही देसकता 
क्यूंकि तुम भी तो नही जानते मुझे पूरी तरह से 
मेरे सारे दर्द मेरी सारी तकलीफें, मजबूरियाँ 
मै कहाँ से क्यूँ मुड गया और कहाँ चला आया 
ये सिर्फ व सिर्फ मै जनता हूँ  या फिर "वो" 
फिर तुम कैसे निर्धारित कर सकते हो 
मै कहाँ कैसे और क्या गलत कर दिया !!
नही ये तुम्हारा पाप है इसीसे बचो 

© आलोक त्रिपाठी, 1988

Wednesday, November 9, 2011

अंदाज बदलने में ज़माने लगे है


आपने तो यूँ ही बेअंदाज बना दिया हमे  
हमे तो अंदाज बदलने में ज़माने लगे है 

छोड़ी नहीं वफायें येही थी बस मेरी  खता 
अब उस पराये शख्स को हम अपने से लगे है 

बड़ी जल्दी कर लिया फैसला अपने नसीब का 
बस हमे उन्हें पराया बनने में ज़माने लगे है 

ये सच है की प्यार कभी शर्तो पे नहीं होता 
और हम उन्हें फ़कत एक चाहने वाले लगे है 

कभी मासूम था मै, बेगना भी था खुद से 
काले गुलाबो के अंदाज उन्हें प्यारे लगे है 

टूटे हुए शीशों की खलिश में ये न भूल जाना 
ये दुआ का असर है गुलाबो में काटें उग आये है 

Monday, October 31, 2011

ये मिजाज़



ये मिजाज़ज़माने की चलनसे  कुछ  खफा खफा सा रहता है 
मंजिलों पे काबिज़ है जो शख्स, मुझसे कुछ डरा डरा सा रहता है 

मेरा इल्ममेरा हूनरमेरी तबियत से इत्फाक नहीं रखते 
मेरी हर कोशिश के बाद भी ये जमाना खफा खफा सा रहता है 

और वो जो रूठ के चले  गए मुझसे कभी हमेशा के लिए 'आंसू
जाने  क्यूँ उनकी यादो का मंझर मेरे दिल में जवां जवां सा रहता है 

क्या कहूं की अब मुझको वईज की बातो  से डर नहीं लगता 
 क्यूँ इस उम्र में भी दिल बच्चे की तरह रवां रवां सा रहता है 

जिन्होंने कभी भी  वफ़ा नहीं निभाई  मुझसे अब तलक   
उनके लिए लिए भी ये पैमाना क्यूँ भरा भरा सा रहता है